Saturday, November 11, 2006

एक रात से बात

रोज़ रात मैं सुनसान में अकेले चलता हूं,
सन्नाटे को चीरती ठंडी हवाओं में जलता हूं।
शायद रात मेरा पीछा करती है,
मेरी मयूसी पे हंस मन भरती है।

एक दिन गुस्साये मैने उससे पूछा-
"मेरा पीछा छोड़, ढ़ूंढ़ कोई दूजा,
ज़ालिम, क्यों उड़ाती है तू मेरा मज़ाक?"
रात हुई शर्मसार, आँसू गिरे बेबाक।

बोली - "मेरा साथ दोस्ती नहीं, मगर,
रोशनी बिन मैं ही तो हूं सबकी हमसफ़र।
तुम्हे ही नही, सभी को देती मै साथ
सबसे कदम मिला के चलती है रात,

मुश्किल में तुम अकेले नहीं, सभी को है यह अहसास,
मेरी थकान देख कर तुम मुस्कराओ, अब उजाल है पास।

Wednesday, October 11, 2006

सवाल

पूछती है राह मुझसे,
यूॅ बढ़ा किस ओर चला है?
दूर तक फैला है बियाबॉ,
नापने कौनसा तू छोर चला है?

खेला करती ये मुझसे अक्सर,
दोराहों पर लाकर मुझे|
राह ही सवाल है, है यही जवाब भी,
मैं इसे बूझता हूॅ, या ये बूझती मुझे?

दूर तक दिखती लम्बी राह,
कभी अचानक पगडंडियों पे मुड़ जाया करती है|
किसी छोटे से गॉव में मुझे लाकर,
उसी में गुम जाया करती है|

पूछती है मुझसे मानो,
सोच ले क्या यहीं रुकेगा?
क्या यही पाने चला था,
या कुछ दूर और चलेगा?

चल रहा हूॅ संग उसीके,
रास्ता साथी मेरा है|
चाह है देखूॅ कि आगे,
किस मोड़ पर छिपा क्या है?

Cross posted from http://madhurt.blogspot.com/

Tuesday, August 01, 2006

चला गया वक़्त

हिन्दी साहित्य में जो मेरी रूची है और उसका जो मेरा थोड़ा बहुत ज्ञान है, वह मुझे अपने पिताजी से विरासत में मिला है। मैने आज तक जो भी पुस्तक पढ़ी है वह उन्ही की लाईब्ररी से आई है।

इसी क्रम को ज़ारी रखते हुए, पितजी ने मेरा ध्यान इस हफ़्ते की आउटलुक साप्ताहिक की ओर आकर्षित किया। हमारे समय के अग्रणी कवि कुंवर नारायण को इटली के प्रीमियो फेरोनियो पुरस्कार मिलने के उप्लक्ष्य में श्री नारायण की दो अप्रकाशित कविताएं छापी गयी। इनमें से एक मैं यहां प्रस्तुत कर रहा हुं। कविता क संदर्भ है - "रिटायरमेन्ट के बाद…"

चला गया वक़्त

अब रुकूं, मुझसे मिलकर
चला गया मेरा वक़्त

अब वक़्त है कि छोड़ दूं
ये रास्ता दूसरों के लिये

कितनी अजीब है
कि चल सकने क वक़्त चला गया
रास्ता बनाने में

और जब चलने का वक़्त आया
चला नहीं जाता
अपने ही बनाये रास्तों पर।

-- कुंवर नारायण


The poem is also very aptly applicable to Madhur, who incidentally created this blog.
बोले तो सरजी -
चला गया वक़्त BLOG बनाने में.....

Saturday, July 08, 2006

क्योंकि सपना है अभी भी

धरमवीर भारती को हिन्दी साहित्य के युवा रचयिताओं में गिना जाता है। उनकी शैली अत्यन्त नवीन एवं जोशीली है। उनकी रचनाओं में से "गुनाहों का देवता", "सूरज का सातवां घोड़ा" इत्यादी प्रमुख हैं।
यहां पर मैं भारती की एक काव्य रचना पर रोशनी डालने का प्रयास करूंगा। यदी आपने "लक्ष्य" देखी है तो आपको इस कविता की सुन्दरता बहुत आसानी से उजागर होगी। लक्ष्य में ऋतिक रोशन ने करण शेरगिल का किरदार निभाया है, जिनकी प्रियसी रोमीला दत्ता का किरदार प्रिती ज़िँटा ने निभाया है। करण को रोमी अपनी ज़िन्दगी से इसलिये निकाल फैंकती है क्योंकी करण के जीवन में कोई लक्ष्य नही है। उसके बाद करण अपने लक्ष्य को ढूँढकर सिर्फ उसीकी दिशा में बढ़ जाता है। भारती जी की इस काव्या रचना "क्योंकी" का सन्दर्भ लक्ष्य में वहां मिलता है जहां करण युद्ध के मैदान में घायल अवस्था में भी लड़ता जा रहा है।

क्योंकि

...... क्योंकि सपना है अभी भी -
इसलिए तलवार टूटे, अश्व घायल
कोहरे डूबी दिशायें,
कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धुंध-धूमिल,
किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी
...... क्योंकि है सपना अभी भी!

तोड़ कर अपने चतुर्दिक का छलावा
जबकि घर छोड़ा, गली छोड़ी, नगर छोड़ा,
कुछ नहीं था पास बस इसके अलावा,
विदा बेला, यही सपना भाल पर तुमने तिलक की तरह आँका था
(एक युग के बाद अब तुमको कहां याद होगा)
किन्तु मुझको तो इसी के लिए जीना और लड़ना
है धधकती आग में तपना अभी भी
...... क्योंकि सपना है अभी भी!

तुम नहीं हो, मैं अकेला हूँ मगर
यह तुम्ही हो जो
टूटती तलवार की झंकार में
या भीड़ की जयकार में
या मौत के सुनसान हाहाकार में
फिर गूंज जाती हो
और मुझको
ढाल छूटे, कवच टूटे हुए मुझको
फिर याद आता है कि
सब कुछ खो गया है - दिशाएँ, पहचान, कुंडल-कवच
लेकिन शेष हूँ मैं, युद्धरत् मैं, तुम्हारा मैं
तुम्हारा अपना अभी भी

इसलिए, तलवार टूटी, अश्व घायल,
कोहरे डूबी दिशाएँ,
कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धूंध-धुमिल
किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी
...... क्योंकि सपना है अभी भी!

- धर्मवीर भारती

संदर्भ-

...... क्योंकि सपना है अभी भी -
इसलिए तलवार टूटे, अश्व घायल
कोहरे डूबी दिशायें,
कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धुंध-धूमिल,
किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी
...... क्योंकि है सपना अभी भी!
करण युद्ध के मैदान में घायल पड़ा है और अपने लक्ष्य-प्राप्ती के सपने को जीवित रखने का प्रयास कर रहा है।



तोड़ कर अपने चतुर्दिक का छलावा
जबकि घर छोड़ा, गली छोड़ी, नगर छोड़ा,
कुछ नहीं था पास बस इसके अलावा,
ऐशो-आराम की ज़िन्दगी छोड़ कर जब करण ने अपने चारों ओर के मायाजाल को तोड़ा तो उसके पास इस सपने के अतिरिक्त कुछ नही था।

विदा बेला, यही सपना भाल पर तुमने तिलक की तरह आँका था
(एक युग के बाद अब तुमको कहां याद होगा)
रोमी ने उसे अपने जीवन से बाहर फेंक उसके अंदर जो आग लगा दी थी, आज वह खुद उस आग को भूल गयी है।

किन्तु मुझको तो इसी के लिए जीना और लड़ना
है धधकती आग में तपना अभी भी
...... क्योंकि सपना है अभी भी!
लेकिन करण तो आज तक उस आग में तप रहा है। उसके जीवन में उसके सपने को गर्म रखने वाली इस आग के अतिरिक्त कुछ नही है।


तुम नहीं हो, मैं अकेला हूँ मगर
यह तुम्ही हो जो
टूटती तलवार की झंकार में
या भीड़ की जयकार में
या मौत के सुनसान हाहाकार में
फिर गूंज जाती हो
आज रोमी की गैरहाज़री में करण अकेला और घायल है, परंतु यह रोमी की आवाज़ ही है जो उसके साहस को जीवित रखती है।

और मुझको
ढाल छूटे, कवच टूटे हुए मुझको
फिर याद आता है कि
सब कुछ खो गया है - दिशाएँ, पहचान, कुंडल-कवच
लेकिन शेष हूँ मैं, युद्धरत् मैं, तुम्हारा मैं
तुम्हारा अपना अभी भी
यही आवाज़ है जो इस मृत्यु-निकट पल में उसे याद दिलाती है कि उसकी यह अवस्था उसकी हार नहीं है। अपितु, अभी भी वह रोमी का अपना है, क्योंकी उसने अपने लक्ष्य, अपनी आग को जीवित रखा है।


इसलिए, तलवार टूटी, अश्व घायल,
कोहरे डूबी दिशाएँ,
कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धूंध-धुमिल
किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी
...... क्योंकि सपना है अभी भी!
यह पंक्तियाँ तो अपनी कहानी स्वयं ही कहती है।

Tuesday, June 13, 2006

कव्योदय

आज मेरे अन्दर एक कवि जागा है,
भीतर से काला साया निकल भागा है।
नई सुबह की चहचहाहट सुन रहा हूँ,
सपनों की विशालतम चादर बुन रहा हूँ॥

परन्तु शब्दों से भीगी इस बरिश में महत्वपूर्ण सवाल खड़ा है,
उजाला तो केवल भीतर है, बाहर तमस विक्राल जड़ा है।
शब्द निरर्थक प्रतीत होते हैं, अतः कर्म पथ जाऊँगा,
क्षमा-प्रार्थना प्रीयतम,
अपनी छोटी सी इस काव्या-रचना को आगे ना बढ़ा पाऊँगा॥

Composed on 06.05.2002

Monday, June 12, 2006

हिम्मत करने वालों की हार नहीं होती...

लहरों से डर कर नौका पार नही होती
हिम्मत करने वालों की हार नहीं होती॥

नन्ही चींटी जब दाना लेकर चलती है,
चढ़ती दीवरों पर सौ बार फिसलती है।
मन का विश्वास रगों में साहस बनता है,
चढ़ कर गिरना, गिर कर चढ़ना ना अखरता है।
आखिर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती॥

डुबकियाँ सिँधु में गोता-खोर लगता है,
जा-जा कर खाली हाथ लौट आता है।
मिलते ना सहज ही मोती पानी में,
बहता दूना उत्साह इसी हैरानी में।
मुठ्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती,
हिम्मत करने वालों की हार नहीं होती॥

असफलता एक चुनौती है, स्वीकार करो,
क्या कमी रह गयी, देखो और सुधार करो।
जब तक ना सफल हो, नींद चैन की त्यागो तुम,
संघर्षों का मैदान छोड़ मत भागो तुम।
कुछ किये बिना ही जय-जयकार नहीं होती,
हिम्मत करने वालों की हार नहीं होती॥

- सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'


This poem has shot back into light due to the movie - Maine Gandhi Ko Nahin Mara. This poem is the favorite poem of the character Uttam Singh (Anupam Kher) in this great flick. Incidently the movie hosts one of the greatest monologues in Indian Movies - watch the movie to see the court room monologue by Anupam Kher towards the end of the movie. Another peculiar observation is that while most hindi movies qualify for more than 5 genres in IMDB classification due to the popular we-want-all-in-one-film public demand, this movie is only tagged as a Drama. It also earns a 8.4/10 rating, unusually high for Hindi Movies on IMDB. To know what I am talking about please compare it to all time classic Sholay's IMDB profile which qualifies for 7 genres (rating: 6.5/10).

Sunday, May 28, 2006

माँ

माँ क्या है? वो एक उजले मन की आशा है,
तुम शब्द हो तो वो तुम्हारी परिभाषा है॥

माँ क्या है? वो एक बहती निर्मल धारा है,
तुम रोशनी हो तो वो भी चमकता सितारा है॥

माँ क्या है? वो एक ठंडी हवा का झोंका है,
तुम गुज़रते पल हो तो वो एक सुनहरा मौका है॥

माँ क्या है? वो सुबह की ओस सी नम है,
तुम भतकती राहें हो तो वो तुम्हारे चलते ना-थकते कदम है॥

माँ क्या है? वो मन को रोशन करती एक अलाव है,
तुम पिघलते बर्फ़ हो तो वो तुम्हारा बहाव है॥

माँ क्या है? वो एक क्षितिज को बढती राही है,
तुम धवल कागज़ हो तो वो तुम पे अंकित स्याही है॥

माँ क्या है? वो बेनामी को भरता एक नाम है,
तुम तीर्थ यात्री हो तो वो तुम्हारा पुण्यधाम है॥

माँ क्या है? वो रोज़ मनाओ ऐसा एक पर्व है,
तुम अगर गौरान्वित हो तो वही तुम्हारा गर्व है॥

माँ क्या है? वो बारह मासों खिलता एक फूल है,
तुम धरा हो तो वो तुमको ढकती धूल है॥

माँ क्या है? वो तुम को सहलाता एक हाथ है,
तुम यदी भक्त हो तो वही तुम्हारे नाथ है॥

माँ क्या है? वो तुम्हारे बचपन का मकान है,
तुम तपस्वी हो तो वही तुम्हारा वर्दान है॥

माँ क्या है? वो तुम्हारी धरती और आकाश है,
तुम दीपक हो तो वही तुम्हारा उज्जव्ल प्रकाश है॥

माँ क्या है? वो तुम्हारी कहानी कहता एक खत है,
तुम जिस कुटिया में रहते, वही उसकी छत है॥

माँ क्या है? वो प्रेम समाज की सत्ता है,
जिस फल को खाकर जीते तुम, उस पेड़ का वो हर पत्ता है॥

माँ क्या है? वो भौतिक सन्सार से परे की माया है,
धूप-छाँव की परवाह बिन, वो हर वक्त तुम्हारी छाया है॥

माँ क्या है? वो हर दुख, हर दर्द की दवा है,
तुम स्वपनिल हो तो वो उमंग की उड़ान भरने हेतु स्वच्छंद हवा है॥

माँ क्या है? वो एक ममता से छलकती छाती है,
तुम रोशन दीपक हो तो वो तुम्हारे हेतु अनादी जलती बाती है॥

माँ क्या है? वो तो हर दिल में उमड़ती तमन्ना है,
तुम खुली किताब हो तो वो तुम्हारा हर एक पन्ना है॥

माँ क्या है? वो हर अनाथ से छीना धन है,
तुम तपती धरती हो तो वही तुम्हारा सावन है॥


माँ वो है जो तुम्हे ईश्वर से उपर उठाती है,
तुम तो उसे प्राप्त कर चुके,
परन्तु,
अनाथ ईश्वर की आत्मा सिर्फ देख रह जाती है॥

वह सोचता है - सबको दी मैंने एक माँ,
क्यूं ना रची स्वयं के लिये एक मातृ-ज्योती।
अब तो अपने ही पुत्रों देख लगता,
काश मेरी भी एक माँ होती॥

फिर भी,
माँ क्या है? वो इस थिरकते जीवन की ताल है,
तुम होगे कवि ज़रूर, किन्तु वह भी बयाँ ना हो सके ऐसा एक ख्याल है॥

माँ तुझे शत्-शत् प्रणाम!

Written on 19, November 2002

आसमान नहीं दिखेगा

खून के झरने जो बह रहे हैं नये,
सूख के हैं घनघोर घटा बन गये।
जगत-जननी ने प्रेम का जो यह आसमान बनाया है,
वह ईन्ही बादलों की ओट में छिपा रहेगा।
आसमान नहीं दिखेगा, आसमान नहीं दिखेगा।

जीत का ध्वज फ़हराकर, पराजय से मुंह छिपाकर,
जाने किस क्षितिज के अन्त को ढूंढ रहे हो,
क्षितिज अनन्त है, यह सदा आपार रहेगा,
बादलों में खो गये तो जाने रास्ता कहां मिलेगा?
आसमान नहीं दिखेगा, आसमान नहीं दिखेगा।

जाने क्या हुआ है मानव को, हत्या-आग को वीरता समझ बैठा है,
वीरता सदा घर बचाती है, औरों के दामन में आग ना लगाती है।
तुम जो लगा रहे हो, नफ़रत की है वो आग,
बूंदें ना बरसी तो जाने और कितना इस आग में झुलसेगा।
आसमान नहीं दिखेगा, आसमान नहीं दिखेगा।

परमात्मा ने बनाया मानव विश्व को समृद्धि दिखाने के लिये,
अन्जाना वह नासमझ यत्न कर रहा है अनल फ़ैलाने के लिये।
लपटें हैं ऊंची, जाने धुआं कहां तक पहुंचेगा,
वह नहीं जानता, सब मर रहें हैं, स्वयं घुट मरेगा,
आसमान नहीं दिखेगा, आसमान नहीं दिखेगा।

यह कंटक झाड़ी है ऐसी, जिसमें पुष्प ना खिलेगा,
इसे काट दो अन्य्था दर्द सहना पड़ेगा,
चमन उगाने है तो परिश्रम तो करना ही पड़ेगा,
यह ना सोचो - हम नहीं कर रहे, कोई तो करेगा,
अन्यथा,
आसमान नहीं दिखेगा, आसमान नहीं दिखेगा।
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Dear Friends this is a poem that I wrote on 15 July, 2001.


The genius of हरिशंकर परसाई

Harishankar Parsai (हरिशंकर परसाई) was one of the exponents of Hindi humor. His satirical compositions (व्यंग्य लेख) have left a whole generation of readers into splits while laughing. He has written short satirical humorous stories on a very wide range of subjects like politics (ठिठुरता हुआ गणतंत्र), corruption (इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर), social evils like Dowry (मन्नू भैया की बारात),etc...

I have been a great fan of this literary genius and have had the opportunity to read quiet a few of his collections, courtesy my fathers collection of hindi literature. Here I present an excerpt from one of his very famous writings -
बारात की वपसी

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एक बारात कि वापसी मुझे याद है।

हम पांच मित्रों ने तय किया कि शाम ४ बजे की बस से वापस चलें। पन्ना से इसी कम्पनी की बस सतना के लिये घण्टे-भर बाद मिलती है, जो जबलपुर की ट्रेन मिला देती है। सुबह घर पहुंच जायेंगे। हममें से दो को सुबह काम पर हाज़िर होना था, इसलिये वापसी का यही रास्ता अपनाना ज़रूरी था। लोगों ने सलाह दी कि समझदार आदमी इस शाम वाली बस से सफ़र नहीं करते। क्या रास्ते में डाकू मिलते हैं? नहीं बस डाकिन है।

बस को देखा तो श्रद्धा उभर पड़ी। खूब वयोवृद्ध थी। सदीयों के अनुभव के निशान लिये हुए थी। लोग इसलिए सफ़र नहीं करना चाहते कि वृद्धावस्था में इसे कष्ट होगा। यह बस पूजा के योग्य थी। उस पर सवार कैसे हुआ जा सकता है!

बस-कम्पनी के एक हिस्सेदार भी उसी बस से जा रहे थे। हमनें उनसे पूछा-यह बस चलती है? वह बोले-चलती क्यों नहीं है जी! अभी चलेगी। हमनें कहा-वही तो हम देखना चाहते हैं। अपने-आप चलती है यह?-हां जी और कैसे चलेगी?

गज़ब हो गया। ऐसी बस अपने-आप चलती है!

हम आगा-पीछा करने लगे। पर डाक्टर मित्र ने कहा-डरो मत, चलो! बस अनुभवी है। नई-नवेली बसों से ज़्यादा विशवनीय है। हमें बेटों की तरह प्यार से गोद में लेकर चलेगी।

हम बैठ गये। जो छोड़ने आए थे, वे इस तरह देख रहे थे, जैसे अंतिम विदा दे रहे हैं। उनकी आखें कह रही थी - आना-जाना तो लगा ही रहता है। आया है सो जायेगा - राजा, रंक, फ़कीर। आदमी को कूच करने के लिए एक निमित्त चाहिए।

इंजन सचमुच स्टार्ट हो गया। ऐसा लगा, जैसे सारी बस ही इंजन है और हम इंजन के भीतर बैठे हैं। कांच बहुत कम बचे थे। जो बचे थे, उनसे हमें बचना था। हम फौरन खिड़की से दूर सरक गये। इंजन चल रहा था। हमें लग रहा था हमारी सीट इंजन के नीचे है।

बस सचमुच चल पड़ी और हमें लगा कि गांधीजी के असहयोग और सविनय अवज्ञा आंदलनों के वक्त अवश्य जवान रही होगी। उसे ट्रेनिंग मिल चुकी थी। हर हिस्सा दुसरे से असहयोग कर रहा था। पूरी बस सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौर से गुज़र रही थी। सीट का बॉडी से असहयोग चल रहा था। कभी लगता, सीट बॉडी को छोड़ कर आगे निकल गयी। कभी लगता कि सीट को छोड़ कर बॉडी आगे भागे जा रही है। आठ-दस मील चलने पर सारे भेद-भाव मिट गए। यह समझ में नहीं आता था कि सीट पर हम बैठे हैं या सीट हमपर बैठी है।

एकाएक बस रूक गयी। मालूम हुआ कि पेट्रोल की टंकी में छेद हो गया है। ड्राइवर ने बाल्टी में पेट्रोल निकाल कर उसे बगल में रखा और नली डालकर इंजन में भेजने लगा। अब मैं उम्मीद कर रहा था कि थोड़ी देर बाद बस कम्पनी के हिस्सेदार इंजन को निकालकर गोद में रख लेंगे और उसे नली से पेट्रोल पिलाएंगे, जैसे मां बच्चे के मुंह में दूध की शीशी लगती है।

बस की रफ्तार अब पन्द्रह-बीस मील हो गयी थी। मुझे उसके किसी हिस्से पर भरोसा नहीं था। ब्रेक फेल हो सकता है, स्टीयरींग टूट सकता है। प्रकृति के दृश्य बहुत लुभावने थे। दोनों तरफ हरे-हरे पेड़ थे, जिन पर पंछी बैठे थे। मैं हर पेड़ को अपना दुश्मन समझ रहा था। जो भी पेड़ आता, डर लगता कि इससे बस टकराएगी। वह निकल जाता तो दूसरे पेड़ का इन्तज़ार करता। झील दिखती तो सोचता कि इसमें बस गोता लगा जाएगी।

एकाएक फिर बस रूकी। ड्राइवर ने तरह-तरह की तरकीबें कीं, पर वह चली नहीं। सविनय अवज्ञा आन्दोलन शुरू हो गया था। कम्पनी के हिस्सेदार कह रहे थे - बस तो फर्स्ट क्लास है जी! ये तो इत्तफाक की बात है।

क्षीण चांदनी में वृक्षों की छाया के नीचे वह बस बड़ी दयनीय लग रही थी। लगता, जैसे कोई वृद्धा थककर बैठ गयी हो। हमें ग्लानी हो रही थी कि इस बेचारी पर लदकर हम चले आ रहे हैं। अगर इसका प्राणांत हो गया तो इस बियाबान में हमें इसकी अन्त्योष्ठी करनी पड़ेगी।

हिस्सेदार साहब ने इंजन खोला और कुछ सुधारा। बस आगे चली। उसकी चाल और कम हो गयी थी।

धीरे-धीरे वृद्धा की आखों की ज्योती जाने लगी। चांदनी में रास्ता टटोलकर वह रेंग रही थी। आगे या पीछे से कोई गाड़ी आती दिखती तो वह एकदम किनारे खड़ी हो जाती और कहती - निकल जाओ बेटी! अपनी तो वह उम्र ही नहीं रही।

एक पुलिया के उपर पहुंचे ही थे कि एक टायर फिस्स करके बैठ गया। बस बहुत ज़ोर से हिलकर थम गयी। अगर स्पीड में होती तो उछल कर नाले में गिर जाती। मैंने उस कम्पनी के हिस्सेदार की तरफ श्रद्धा भाव से देखा। वह टायरों क हाल जानते हैं, फिर भी जान हथेली पर ले कर इसी बस से सफर करते हैं। उत्सर्ग की ऐसी भावना दुर्लभ है। सोचा, इस आदमी के साहस और बलिदान-भावना का सही उपयोग नहीं हो रहा है। इसे तो किसी क्रांतिकारी आंदोलन का नेता होना चाहिए। अगर बस नाले में गिर पड़ती और हम सब मर जाते, तो देवता बांहें पसारे उसका इन्तज़ार करते। कहते - वह महान आदमी आ रहा है जिसने एक टायर के लिए प्राण दे दिए। मर गया, पर टायर नहीं बदला।

दूसरा घिसा टायर लगाकर बस फिर चली। अब हमने वक्त पर पन्ना पहुंचने की उम्मीद छोड़ दी थी। पन्ना कभी भी पहुंचने की उम्मीद छोड़ दी थी - पन्ना, क्या, कहीं भी, कभी भी पहुंचने की उम्मीद छोड़ दी थी। लगता था, ज़िन्दगी इसी बस में गुज़ारनी है और इससे सीधे उस लोक की ओर प्रयाण कर जाना है। इस पृथ्वी पर उसकी कोई मंज़िल नहीं है। हमारी बेताबी, तनाव खत्म हो गये। हम बड़े इत्मीनान से घर की तरह बैठ गये। चिन्ता जाती रही। हंसी मज़ाक चालू हो गया।

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Next, I guess I will be uploading "इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर".