Sunday, May 28, 2006

माँ

माँ क्या है? वो एक उजले मन की आशा है,
तुम शब्द हो तो वो तुम्हारी परिभाषा है॥

माँ क्या है? वो एक बहती निर्मल धारा है,
तुम रोशनी हो तो वो भी चमकता सितारा है॥

माँ क्या है? वो एक ठंडी हवा का झोंका है,
तुम गुज़रते पल हो तो वो एक सुनहरा मौका है॥

माँ क्या है? वो सुबह की ओस सी नम है,
तुम भतकती राहें हो तो वो तुम्हारे चलते ना-थकते कदम है॥

माँ क्या है? वो मन को रोशन करती एक अलाव है,
तुम पिघलते बर्फ़ हो तो वो तुम्हारा बहाव है॥

माँ क्या है? वो एक क्षितिज को बढती राही है,
तुम धवल कागज़ हो तो वो तुम पे अंकित स्याही है॥

माँ क्या है? वो बेनामी को भरता एक नाम है,
तुम तीर्थ यात्री हो तो वो तुम्हारा पुण्यधाम है॥

माँ क्या है? वो रोज़ मनाओ ऐसा एक पर्व है,
तुम अगर गौरान्वित हो तो वही तुम्हारा गर्व है॥

माँ क्या है? वो बारह मासों खिलता एक फूल है,
तुम धरा हो तो वो तुमको ढकती धूल है॥

माँ क्या है? वो तुम को सहलाता एक हाथ है,
तुम यदी भक्त हो तो वही तुम्हारे नाथ है॥

माँ क्या है? वो तुम्हारे बचपन का मकान है,
तुम तपस्वी हो तो वही तुम्हारा वर्दान है॥

माँ क्या है? वो तुम्हारी धरती और आकाश है,
तुम दीपक हो तो वही तुम्हारा उज्जव्ल प्रकाश है॥

माँ क्या है? वो तुम्हारी कहानी कहता एक खत है,
तुम जिस कुटिया में रहते, वही उसकी छत है॥

माँ क्या है? वो प्रेम समाज की सत्ता है,
जिस फल को खाकर जीते तुम, उस पेड़ का वो हर पत्ता है॥

माँ क्या है? वो भौतिक सन्सार से परे की माया है,
धूप-छाँव की परवाह बिन, वो हर वक्त तुम्हारी छाया है॥

माँ क्या है? वो हर दुख, हर दर्द की दवा है,
तुम स्वपनिल हो तो वो उमंग की उड़ान भरने हेतु स्वच्छंद हवा है॥

माँ क्या है? वो एक ममता से छलकती छाती है,
तुम रोशन दीपक हो तो वो तुम्हारे हेतु अनादी जलती बाती है॥

माँ क्या है? वो तो हर दिल में उमड़ती तमन्ना है,
तुम खुली किताब हो तो वो तुम्हारा हर एक पन्ना है॥

माँ क्या है? वो हर अनाथ से छीना धन है,
तुम तपती धरती हो तो वही तुम्हारा सावन है॥


माँ वो है जो तुम्हे ईश्वर से उपर उठाती है,
तुम तो उसे प्राप्त कर चुके,
परन्तु,
अनाथ ईश्वर की आत्मा सिर्फ देख रह जाती है॥

वह सोचता है - सबको दी मैंने एक माँ,
क्यूं ना रची स्वयं के लिये एक मातृ-ज्योती।
अब तो अपने ही पुत्रों देख लगता,
काश मेरी भी एक माँ होती॥

फिर भी,
माँ क्या है? वो इस थिरकते जीवन की ताल है,
तुम होगे कवि ज़रूर, किन्तु वह भी बयाँ ना हो सके ऐसा एक ख्याल है॥

माँ तुझे शत्-शत् प्रणाम!

Written on 19, November 2002

आसमान नहीं दिखेगा

खून के झरने जो बह रहे हैं नये,
सूख के हैं घनघोर घटा बन गये।
जगत-जननी ने प्रेम का जो यह आसमान बनाया है,
वह ईन्ही बादलों की ओट में छिपा रहेगा।
आसमान नहीं दिखेगा, आसमान नहीं दिखेगा।

जीत का ध्वज फ़हराकर, पराजय से मुंह छिपाकर,
जाने किस क्षितिज के अन्त को ढूंढ रहे हो,
क्षितिज अनन्त है, यह सदा आपार रहेगा,
बादलों में खो गये तो जाने रास्ता कहां मिलेगा?
आसमान नहीं दिखेगा, आसमान नहीं दिखेगा।

जाने क्या हुआ है मानव को, हत्या-आग को वीरता समझ बैठा है,
वीरता सदा घर बचाती है, औरों के दामन में आग ना लगाती है।
तुम जो लगा रहे हो, नफ़रत की है वो आग,
बूंदें ना बरसी तो जाने और कितना इस आग में झुलसेगा।
आसमान नहीं दिखेगा, आसमान नहीं दिखेगा।

परमात्मा ने बनाया मानव विश्व को समृद्धि दिखाने के लिये,
अन्जाना वह नासमझ यत्न कर रहा है अनल फ़ैलाने के लिये।
लपटें हैं ऊंची, जाने धुआं कहां तक पहुंचेगा,
वह नहीं जानता, सब मर रहें हैं, स्वयं घुट मरेगा,
आसमान नहीं दिखेगा, आसमान नहीं दिखेगा।

यह कंटक झाड़ी है ऐसी, जिसमें पुष्प ना खिलेगा,
इसे काट दो अन्य्था दर्द सहना पड़ेगा,
चमन उगाने है तो परिश्रम तो करना ही पड़ेगा,
यह ना सोचो - हम नहीं कर रहे, कोई तो करेगा,
अन्यथा,
आसमान नहीं दिखेगा, आसमान नहीं दिखेगा।
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Dear Friends this is a poem that I wrote on 15 July, 2001.


The genius of हरिशंकर परसाई

Harishankar Parsai (हरिशंकर परसाई) was one of the exponents of Hindi humor. His satirical compositions (व्यंग्य लेख) have left a whole generation of readers into splits while laughing. He has written short satirical humorous stories on a very wide range of subjects like politics (ठिठुरता हुआ गणतंत्र), corruption (इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर), social evils like Dowry (मन्नू भैया की बारात),etc...

I have been a great fan of this literary genius and have had the opportunity to read quiet a few of his collections, courtesy my fathers collection of hindi literature. Here I present an excerpt from one of his very famous writings -
बारात की वपसी

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एक बारात कि वापसी मुझे याद है।

हम पांच मित्रों ने तय किया कि शाम ४ बजे की बस से वापस चलें। पन्ना से इसी कम्पनी की बस सतना के लिये घण्टे-भर बाद मिलती है, जो जबलपुर की ट्रेन मिला देती है। सुबह घर पहुंच जायेंगे। हममें से दो को सुबह काम पर हाज़िर होना था, इसलिये वापसी का यही रास्ता अपनाना ज़रूरी था। लोगों ने सलाह दी कि समझदार आदमी इस शाम वाली बस से सफ़र नहीं करते। क्या रास्ते में डाकू मिलते हैं? नहीं बस डाकिन है।

बस को देखा तो श्रद्धा उभर पड़ी। खूब वयोवृद्ध थी। सदीयों के अनुभव के निशान लिये हुए थी। लोग इसलिए सफ़र नहीं करना चाहते कि वृद्धावस्था में इसे कष्ट होगा। यह बस पूजा के योग्य थी। उस पर सवार कैसे हुआ जा सकता है!

बस-कम्पनी के एक हिस्सेदार भी उसी बस से जा रहे थे। हमनें उनसे पूछा-यह बस चलती है? वह बोले-चलती क्यों नहीं है जी! अभी चलेगी। हमनें कहा-वही तो हम देखना चाहते हैं। अपने-आप चलती है यह?-हां जी और कैसे चलेगी?

गज़ब हो गया। ऐसी बस अपने-आप चलती है!

हम आगा-पीछा करने लगे। पर डाक्टर मित्र ने कहा-डरो मत, चलो! बस अनुभवी है। नई-नवेली बसों से ज़्यादा विशवनीय है। हमें बेटों की तरह प्यार से गोद में लेकर चलेगी।

हम बैठ गये। जो छोड़ने आए थे, वे इस तरह देख रहे थे, जैसे अंतिम विदा दे रहे हैं। उनकी आखें कह रही थी - आना-जाना तो लगा ही रहता है। आया है सो जायेगा - राजा, रंक, फ़कीर। आदमी को कूच करने के लिए एक निमित्त चाहिए।

इंजन सचमुच स्टार्ट हो गया। ऐसा लगा, जैसे सारी बस ही इंजन है और हम इंजन के भीतर बैठे हैं। कांच बहुत कम बचे थे। जो बचे थे, उनसे हमें बचना था। हम फौरन खिड़की से दूर सरक गये। इंजन चल रहा था। हमें लग रहा था हमारी सीट इंजन के नीचे है।

बस सचमुच चल पड़ी और हमें लगा कि गांधीजी के असहयोग और सविनय अवज्ञा आंदलनों के वक्त अवश्य जवान रही होगी। उसे ट्रेनिंग मिल चुकी थी। हर हिस्सा दुसरे से असहयोग कर रहा था। पूरी बस सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौर से गुज़र रही थी। सीट का बॉडी से असहयोग चल रहा था। कभी लगता, सीट बॉडी को छोड़ कर आगे निकल गयी। कभी लगता कि सीट को छोड़ कर बॉडी आगे भागे जा रही है। आठ-दस मील चलने पर सारे भेद-भाव मिट गए। यह समझ में नहीं आता था कि सीट पर हम बैठे हैं या सीट हमपर बैठी है।

एकाएक बस रूक गयी। मालूम हुआ कि पेट्रोल की टंकी में छेद हो गया है। ड्राइवर ने बाल्टी में पेट्रोल निकाल कर उसे बगल में रखा और नली डालकर इंजन में भेजने लगा। अब मैं उम्मीद कर रहा था कि थोड़ी देर बाद बस कम्पनी के हिस्सेदार इंजन को निकालकर गोद में रख लेंगे और उसे नली से पेट्रोल पिलाएंगे, जैसे मां बच्चे के मुंह में दूध की शीशी लगती है।

बस की रफ्तार अब पन्द्रह-बीस मील हो गयी थी। मुझे उसके किसी हिस्से पर भरोसा नहीं था। ब्रेक फेल हो सकता है, स्टीयरींग टूट सकता है। प्रकृति के दृश्य बहुत लुभावने थे। दोनों तरफ हरे-हरे पेड़ थे, जिन पर पंछी बैठे थे। मैं हर पेड़ को अपना दुश्मन समझ रहा था। जो भी पेड़ आता, डर लगता कि इससे बस टकराएगी। वह निकल जाता तो दूसरे पेड़ का इन्तज़ार करता। झील दिखती तो सोचता कि इसमें बस गोता लगा जाएगी।

एकाएक फिर बस रूकी। ड्राइवर ने तरह-तरह की तरकीबें कीं, पर वह चली नहीं। सविनय अवज्ञा आन्दोलन शुरू हो गया था। कम्पनी के हिस्सेदार कह रहे थे - बस तो फर्स्ट क्लास है जी! ये तो इत्तफाक की बात है।

क्षीण चांदनी में वृक्षों की छाया के नीचे वह बस बड़ी दयनीय लग रही थी। लगता, जैसे कोई वृद्धा थककर बैठ गयी हो। हमें ग्लानी हो रही थी कि इस बेचारी पर लदकर हम चले आ रहे हैं। अगर इसका प्राणांत हो गया तो इस बियाबान में हमें इसकी अन्त्योष्ठी करनी पड़ेगी।

हिस्सेदार साहब ने इंजन खोला और कुछ सुधारा। बस आगे चली। उसकी चाल और कम हो गयी थी।

धीरे-धीरे वृद्धा की आखों की ज्योती जाने लगी। चांदनी में रास्ता टटोलकर वह रेंग रही थी। आगे या पीछे से कोई गाड़ी आती दिखती तो वह एकदम किनारे खड़ी हो जाती और कहती - निकल जाओ बेटी! अपनी तो वह उम्र ही नहीं रही।

एक पुलिया के उपर पहुंचे ही थे कि एक टायर फिस्स करके बैठ गया। बस बहुत ज़ोर से हिलकर थम गयी। अगर स्पीड में होती तो उछल कर नाले में गिर जाती। मैंने उस कम्पनी के हिस्सेदार की तरफ श्रद्धा भाव से देखा। वह टायरों क हाल जानते हैं, फिर भी जान हथेली पर ले कर इसी बस से सफर करते हैं। उत्सर्ग की ऐसी भावना दुर्लभ है। सोचा, इस आदमी के साहस और बलिदान-भावना का सही उपयोग नहीं हो रहा है। इसे तो किसी क्रांतिकारी आंदोलन का नेता होना चाहिए। अगर बस नाले में गिर पड़ती और हम सब मर जाते, तो देवता बांहें पसारे उसका इन्तज़ार करते। कहते - वह महान आदमी आ रहा है जिसने एक टायर के लिए प्राण दे दिए। मर गया, पर टायर नहीं बदला।

दूसरा घिसा टायर लगाकर बस फिर चली। अब हमने वक्त पर पन्ना पहुंचने की उम्मीद छोड़ दी थी। पन्ना कभी भी पहुंचने की उम्मीद छोड़ दी थी - पन्ना, क्या, कहीं भी, कभी भी पहुंचने की उम्मीद छोड़ दी थी। लगता था, ज़िन्दगी इसी बस में गुज़ारनी है और इससे सीधे उस लोक की ओर प्रयाण कर जाना है। इस पृथ्वी पर उसकी कोई मंज़िल नहीं है। हमारी बेताबी, तनाव खत्म हो गये। हम बड़े इत्मीनान से घर की तरह बैठ गये। चिन्ता जाती रही। हंसी मज़ाक चालू हो गया।

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Next, I guess I will be uploading "इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर".