खून के झरने जो बह रहे हैं नये,
सूख के हैं घनघोर घटा बन गये।
जगत-जननी ने प्रेम का जो यह आसमान बनाया है,
वह ईन्ही बादलों की ओट में छिपा रहेगा।
आसमान नहीं दिखेगा, आसमान नहीं दिखेगा।
जीत का ध्वज फ़हराकर, पराजय से मुंह छिपाकर,
जाने किस क्षितिज के अन्त को ढूंढ रहे हो,
क्षितिज अनन्त है, यह सदा आपार रहेगा,
बादलों में खो गये तो जाने रास्ता कहां मिलेगा?
आसमान नहीं दिखेगा, आसमान नहीं दिखेगा।
जाने क्या हुआ है मानव को, हत्या-आग को वीरता समझ बैठा है,
वीरता सदा घर बचाती है, औरों के दामन में आग ना लगाती है।
तुम जो लगा रहे हो, नफ़रत की है वो आग,
बूंदें ना बरसी तो जाने और कितना इस आग में झुलसेगा।
आसमान नहीं दिखेगा, आसमान नहीं दिखेगा।
परमात्मा ने बनाया मानव विश्व को समृद्धि दिखाने के लिये,
अन्जाना वह नासमझ यत्न कर रहा है अनल फ़ैलाने के लिये।
लपटें हैं ऊंची, जाने धुआं कहां तक पहुंचेगा,
वह नहीं जानता, सब मर रहें हैं, स्वयं घुट मरेगा,
आसमान नहीं दिखेगा, आसमान नहीं दिखेगा।
यह कंटक झाड़ी है ऐसी, जिसमें पुष्प ना खिलेगा,
इसे काट दो अन्य्था दर्द सहना पड़ेगा,
चमन उगाने है तो परिश्रम तो करना ही पड़ेगा,
यह ना सोचो - हम नहीं कर रहे, कोई तो करेगा,
अन्यथा,
आसमान नहीं दिखेगा, आसमान नहीं दिखेगा।
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Dear Friends this is a poem that I wrote on 15 July, 2001.
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