आज मेरे अन्दर एक कवि जागा है,
भीतर से काला साया निकल भागा है।
नई सुबह की चहचहाहट सुन रहा हूँ,
सपनों की विशालतम चादर बुन रहा हूँ॥
परन्तु शब्दों से भीगी इस बरिश में महत्वपूर्ण सवाल खड़ा है,
उजाला तो केवल भीतर है, बाहर तमस विक्राल जड़ा है।
शब्द निरर्थक प्रतीत होते हैं, अतः कर्म पथ जाऊँगा,
क्षमा-प्रार्थना प्रीयतम,
अपनी छोटी सी इस काव्या-रचना को आगे ना बढ़ा पाऊँगा॥
Composed on 06.05.2002
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2 comments:
@ moonlight
Check for browser compatibility. In a lot of cases, it happens that the choti "I" ki matraa (इ) gets placed on the next-word. It happens with old mozilla-firefox. I have seen new versions of firefox that display it correctly.
If there are gross mistakes above all this, then the credit goes to me. :-)
just now bumped on your blog. kya hai yaar, apke kya kehne...
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