हिन्दी साहित्य में जो मेरी रूची है और उसका जो मेरा थोड़ा बहुत ज्ञान है, वह मुझे अपने पिताजी से विरासत में मिला है। मैने आज तक जो भी पुस्तक पढ़ी है वह उन्ही की लाईब्ररी से आई है।
इसी क्रम को ज़ारी रखते हुए, पितजी ने मेरा ध्यान इस हफ़्ते की आउटलुक साप्ताहिक की ओर आकर्षित किया। हमारे समय के अग्रणी कवि कुंवर नारायण को इटली के प्रीमियो फेरोनियो पुरस्कार मिलने के उप्लक्ष्य में श्री नारायण की दो अप्रकाशित कविताएं छापी गयी। इनमें से एक मैं यहां प्रस्तुत कर रहा हुं। कविता क संदर्भ है - "रिटायरमेन्ट के बाद…"
चला गया वक़्त
अब रुकूं, मुझसे मिलकर
चला गया मेरा वक़्त
अब वक़्त है कि छोड़ दूं
ये रास्ता दूसरों के लिये
कितनी अजीब है
कि चल सकने क वक़्त चला गया
रास्ता बनाने में
और जब चलने का वक़्त आया
चला नहीं जाता
अपने ही बनाये रास्तों पर।
-- कुंवर नारायण
The poem is also very aptly applicable to Madhur, who incidentally created this blog.
बोले तो सरजी -
चला गया वक़्त BLOG बनाने में.....
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2 comments:
its sad. but short and right on spot.
आप कविता प्रेमी लगते हैं
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