Saturday, August 18, 2007

एक आँसू की आरज़ू

आँसू बड़े नादान है, मेरी आँखों में आ बसते हैं,
लुक्का छुप्पी खेल रहे, मेरी आँखों से ना निकलते हैं।
मैंने कहा - मेरी परेशानियों पे तुम क्यों खिलखिलाते हो,
बाहर निकल आओ, कहीं और क्यों ना छलछलाते हो।

आँसू बोला - जळी क्या है, जब मन करे तभी जायेंगे,
हमारा कर्म बंधन कहता कि हम तुम्हारे मन की निभायेंगे।
मैंने उन्हे ललचाया - अपने मन की भी तो सुनो, बाहर निकल आओ,
दुनिया में देखने को स्थान बहुत, नेत्र-क्षेत्र छोड़ कर तो जाओ।

जवाब आया कि - जी तो बहुत करता है, तुम्हे अपनी दुविधा बतलाते हैं,
हम बेचारे अपने ही मन की नही सुन सकते, लेकिन एक आरज़ू जताते है।
तुम अपने मन से नाता ना तोड़ना, हम यहीं कैद हो जायेंगे,
विश्व-भ्रमण के ख्वाबों से दूर इन्ही बंजर आखों मे सूख जायेंगे।
इन्ही बंजर आखों में सूख जायेंगे।

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