एक अधेड़ बालक की कथा
पिताजी बोले - बेटा,
तुम्हरे यह जो चेहरे के बाल हैं,
अभी तलक दिखाई नहीं देते,
जन्मोपरान्त तुम्हे हुए पच्चीस साल हैं।
हम बोले - आप ज़रा बैठे,
हम ज़रा शौचालय जाकर आते हैं,
कुदरत के इस बुलावे को सुलझा कर अपको
इस दढियल दुर्घटना का निजी पक्ष सुनाते हैं|
लौट कर मैने कहा-
मेरे कर्म में ही जवाब छिपा है,
उस सच्चाई से कैसे लङू
जिसे कुदरत ने तकदीर में लिखा है?
पुत्र के आलसी स्वभाव को देख,
पिताजी के स्वरों में प्रेरणा भर आयी,
जो आज तलक मन में थी,
वह बात हमें अकस्मात ही बतलायी।
बोले - बादशाह बाबर की दाढी ने
हिंदोस्तान की असीम गद्दी कमायी,
तुम्हारी इस तीन-बाली दाढी ने
तो जवानी भी बचपन को गंवायी।
जानते हो दाढी की महिमा का
मेजर शैतान सिंघ पर क्या असर हुआ?
जिसका नाम इतना उदंडी हो,
वह नर दाढी से अमर हुआ!
दाढी के धनी मनमोहन को देखो,
सोनिया से पटा कर भी ५ वर्ष चली है,
अटल रोज़ाना शेव करते थे,
उनके मोर्चे को तो तेराह का शनी है।
हमने कहा पिताजी - गलती दादीसा की है
इष्ट देवता हैं वे ब्रम्हचारी हनुमान को बताती,
शिव को देते यह पोस्ट, तो पार्वती माता
प्रभु-हृदय हमारी दाढी हेतु दया तो जगाती।
बस अब एक ही रास्ता बचा है,
हम दाढी हेतु तप्स्या करना चाहते हैं,
आपने देखा नहीं तपस्वी नरों को,
कैसे फटाफट दाढी उगाते हैं।
अब हम पैंतालीस के हो गये,
तपस्या करते हो गये बीस साल हैं,
शायद ये भ्रम ही था,
प्रभू-अर्चना से उगते ना कोई बाल हैं।
दिमाग में दौड़ी लहर, समझ में आया,
अगर यही सब करने से बाल उग आते,
तो तेल और मालिश क्यों बिकते,
सारे गंजे तपस्वी ना हो जाते।
मन में छायी उदासी,
तपस्या त्यागने का हमने ठान लिया,
किन्तु, उसी क्षण हरी प्रकट हुए,
हमें बेशर्ती मनचाहा वर्दान दिया।
हमने कहा - प्रिय कृपालू,
हमारी मुख-धरा पर घनी सी दाढी-मूँछ सींच दो,
यह जो बचपन हमारी जवानी पे लटका है,
इसकी हलके से आप पूँछ खींच दो।
हरी बोले - बेटा, हमने तो सूर्य-कवच भी बाँटा था,
उसका भी कर्ण ने प्रिय को दान किया,
हम दाढी नहीं बेचते, पौलिसी मैटर है,
नचिकेता को भी हमने यही ग्यान दिया।
अब जो बता रहे, ध्यान से सुनो,
यही निर्दोष ग्यान की मोती जङी सींप है -
दाढी-मूँछ तो सब एक दिखावा है,
ग्यान ही वयस्क आत्मा का अबुझ दीप है।
चिकने चेहरे को लौटा देख घरवाले चिल्लाये,
आप प्रभू के द्वार से भी खाली हाथ लौट आये!
हम अपनी रौशन आत्मा का सोच कर तनिक से मुस्काये,
कोई कितना भी छेड़े, अब दढी की बात पर हम और ना गुस्सायें!
- नरेश
This is a hypothetical account of a 45 year old man who is in the conundrum of not having a beard at this age!
Disclaimer:
All characters in this poem are fictitious and any resemblance to persons living or dead is purely coincidental.
Thursday, January 08, 2009
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