रोज़ रात मैं सुनसान में अकेले चलता हूं,
सन्नाटे को चीरती ठंडी हवाओं में जलता हूं।
शायद रात मेरा पीछा करती है,
मेरी मयूसी पे हंस मन भरती है।
एक दिन गुस्साये मैने उससे पूछा-
"मेरा पीछा छोड़, ढ़ूंढ़ कोई दूजा,
ज़ालिम, क्यों उड़ाती है तू मेरा मज़ाक?"
रात हुई शर्मसार, आँसू गिरे बेबाक।
बोली - "मेरा साथ दोस्ती नहीं, मगर,
रोशनी बिन मैं ही तो हूं सबकी हमसफ़र।
तुम्हे ही नही, सभी को देती मै साथ
सबसे कदम मिला के चलती है रात,
मुश्किल में तुम अकेले नहीं, सभी को है यह अहसास,
मेरी थकान देख कर तुम मुस्कराओ, अब उजाल है पास।
Saturday, November 11, 2006
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