Saturday, January 30, 2010

जिजीविषा

मेरी खिड़की के झरोखे से इक सूखी टहनी दिखती है,

सर्द हवा के झोकों से अकेली जूझती हुई।

कभी बर्फ़ की चादर अोढ़े, कभी ठंडी धूप में ठिठुरते हुए,

कहीं उसे खुद पर दया तो न अाती होगी?

अब तो कमबख्त पत्तों ने भी साथ छोड़ दिया है।

उस ठंडी निर्दय आंधी में कहीं वो सहम तो न जाती होगी?


पर हफ़्तों से देखता हूँ, हार तो नहीं मानी इसने।

जहाँ कई शाखें धराशायी हैं, ये ज्यौं की तयौं डटी है।

टहनी छोटी ही सही, जीवट तो बहुत है!

इतना साहस, इतनी जीवनशक्ति, कहाँ से पाती होगी!


तभी ये बातें हवा ने बाहर जा फुसफुसा दीं।

टहनी मेरी ओर झुक कर, कुछ मुस्कुराकर बोली -

तुम मनुष्य जिजीविषा का अनोखा मतलब लगाते हो!

जीवन को युद्ध मान कर, मुझ पर बेवजह तरस खाते हो।

मैं तो बस ठंडी हवा का आनंद उठाती हूँ।

तब पत्तों के साथ झूमती थी, अब अकेली लहराती हूँ!


Thursday, January 08, 2009

एक अधेड़ बालक की कथा

एक अधेड़ बालक की कथा

पिताजी बोले - बेटा,
तुम्हरे यह जो चेहरे के बाल हैं,
अभी तलक दिखाई नहीं देते,
जन्मोपरान्त तुम्हे हुए पच्चीस साल हैं।

हम बोले - आप ज़रा बैठे,
हम ज़रा शौचालय जाकर आते हैं,
कुदरत के इस बुलावे को सुलझा कर अपको
इस दढियल दुर्घटना का निजी पक्ष सुनाते हैं|

लौट कर मैने कहा-
मेरे कर्म में ही जवाब छिपा है,
उस सच्चाई से कैसे लङू
जिसे कुदरत ने तकदीर में लिखा है?

पुत्र के आलसी स्वभाव को देख,
पिताजी के स्वरों में प्रेरणा भर आयी,
जो आज तलक मन में थी,
वह बात हमें अकस्मात ही बतलायी।

बोले - बादशाह बाबर की दाढी ने
हिंदोस्तान की असीम गद्दी कमायी,
तुम्हारी इस तीन-बाली दाढी ने
तो जवानी भी बचपन को गंवायी।

जानते हो दाढी की महिमा का
मेजर शैतान सिंघ पर क्या असर हुआ?
जिसका नाम इतना उदंडी हो,
वह नर दाढी से अमर हुआ!

दाढी के धनी मनमोहन को देखो,
सोनिया से पटा कर भी ५ वर्ष चली है,
अटल रोज़ाना शेव करते थे,
उनके मोर्चे को तो तेराह का शनी है।


हमने कहा पिताजी - गलती दादीसा की है
इष्ट देवता हैं वे ब्रम्हचारी हनुमान को बताती,
शिव को देते यह पोस्ट, तो पार्वती माता
प्रभु-हृदय हमारी दाढी हेतु दया तो जगाती।

बस अब एक ही रास्ता बचा है,
हम दाढी हेतु तप्स्या करना चाहते हैं,
आपने देखा नहीं तपस्वी नरों को,
कैसे फटाफट दाढी उगाते हैं।

अब हम पैंतालीस के हो गये,
तपस्या करते हो गये बीस साल हैं,
शायद ये भ्रम ही था,
प्रभू-अर्चना से उगते ना कोई बाल हैं।

दिमाग में दौड़ी लहर, समझ में आया,
अगर यही सब करने से बाल उग आते,
तो तेल और मालिश क्यों बिकते,
सारे गंजे तपस्वी ना हो जाते।

मन में छायी उदासी,
तपस्या त्यागने का हमने ठान लिया,
किन्तु, उसी क्षण हरी प्रकट हुए,
हमें बेशर्ती मनचाहा वर्दान दिया।

हमने कहा - प्रिय कृपालू,
हमारी मुख-धरा पर घनी सी दाढी-मूँछ सींच दो,
यह जो बचपन हमारी जवानी पे लटका है,
इसकी हलके से आप पूँछ खींच दो।


हरी बोले - बेटा, हमने तो सूर्य-कवच भी बाँटा था,
उसका भी कर्ण ने प्रिय को दान किया,
हम दाढी नहीं बेचते, पौलिसी मैटर है,
नचिकेता को भी हमने यही ग्यान दिया।

अब जो बता रहे, ध्यान से सुनो,
यही निर्दोष ग्यान की मोती जङी सींप है -
दाढी-मूँछ तो सब एक दिखावा है,
ग्यान ही वयस्क आत्मा का अबुझ दीप है।

चिकने चेहरे को लौटा देख घरवाले चिल्लाये,
आप प्रभू के द्वार से भी खाली हाथ लौट आये!
हम अपनी रौशन आत्मा का सोच कर तनिक से मुस्काये,
कोई कितना भी छेड़े, अब दढी की बात पर हम और ना गुस्सायें!

- नरेश

This is a hypothetical account of a 45 year old man who is in the conundrum of not having a beard at this age!

Disclaimer:
All characters in this poem are fictitious and any resemblance to persons living or dead is purely coincidental.

Saturday, August 18, 2007

एक आँसू की आरज़ू

आँसू बड़े नादान है, मेरी आँखों में आ बसते हैं,
लुक्का छुप्पी खेल रहे, मेरी आँखों से ना निकलते हैं।
मैंने कहा - मेरी परेशानियों पे तुम क्यों खिलखिलाते हो,
बाहर निकल आओ, कहीं और क्यों ना छलछलाते हो।

आँसू बोला - जळी क्या है, जब मन करे तभी जायेंगे,
हमारा कर्म बंधन कहता कि हम तुम्हारे मन की निभायेंगे।
मैंने उन्हे ललचाया - अपने मन की भी तो सुनो, बाहर निकल आओ,
दुनिया में देखने को स्थान बहुत, नेत्र-क्षेत्र छोड़ कर तो जाओ।

जवाब आया कि - जी तो बहुत करता है, तुम्हे अपनी दुविधा बतलाते हैं,
हम बेचारे अपने ही मन की नही सुन सकते, लेकिन एक आरज़ू जताते है।
तुम अपने मन से नाता ना तोड़ना, हम यहीं कैद हो जायेंगे,
विश्व-भ्रमण के ख्वाबों से दूर इन्ही बंजर आखों मे सूख जायेंगे।
इन्ही बंजर आखों में सूख जायेंगे।

Saturday, November 11, 2006

एक रात से बात

रोज़ रात मैं सुनसान में अकेले चलता हूं,
सन्नाटे को चीरती ठंडी हवाओं में जलता हूं।
शायद रात मेरा पीछा करती है,
मेरी मयूसी पे हंस मन भरती है।

एक दिन गुस्साये मैने उससे पूछा-
"मेरा पीछा छोड़, ढ़ूंढ़ कोई दूजा,
ज़ालिम, क्यों उड़ाती है तू मेरा मज़ाक?"
रात हुई शर्मसार, आँसू गिरे बेबाक।

बोली - "मेरा साथ दोस्ती नहीं, मगर,
रोशनी बिन मैं ही तो हूं सबकी हमसफ़र।
तुम्हे ही नही, सभी को देती मै साथ
सबसे कदम मिला के चलती है रात,

मुश्किल में तुम अकेले नहीं, सभी को है यह अहसास,
मेरी थकान देख कर तुम मुस्कराओ, अब उजाल है पास।

Wednesday, October 11, 2006

सवाल

पूछती है राह मुझसे,
यूॅ बढ़ा किस ओर चला है?
दूर तक फैला है बियाबॉ,
नापने कौनसा तू छोर चला है?

खेला करती ये मुझसे अक्सर,
दोराहों पर लाकर मुझे|
राह ही सवाल है, है यही जवाब भी,
मैं इसे बूझता हूॅ, या ये बूझती मुझे?

दूर तक दिखती लम्बी राह,
कभी अचानक पगडंडियों पे मुड़ जाया करती है|
किसी छोटे से गॉव में मुझे लाकर,
उसी में गुम जाया करती है|

पूछती है मुझसे मानो,
सोच ले क्या यहीं रुकेगा?
क्या यही पाने चला था,
या कुछ दूर और चलेगा?

चल रहा हूॅ संग उसीके,
रास्ता साथी मेरा है|
चाह है देखूॅ कि आगे,
किस मोड़ पर छिपा क्या है?

Cross posted from http://madhurt.blogspot.com/

Tuesday, August 01, 2006

चला गया वक़्त

हिन्दी साहित्य में जो मेरी रूची है और उसका जो मेरा थोड़ा बहुत ज्ञान है, वह मुझे अपने पिताजी से विरासत में मिला है। मैने आज तक जो भी पुस्तक पढ़ी है वह उन्ही की लाईब्ररी से आई है।

इसी क्रम को ज़ारी रखते हुए, पितजी ने मेरा ध्यान इस हफ़्ते की आउटलुक साप्ताहिक की ओर आकर्षित किया। हमारे समय के अग्रणी कवि कुंवर नारायण को इटली के प्रीमियो फेरोनियो पुरस्कार मिलने के उप्लक्ष्य में श्री नारायण की दो अप्रकाशित कविताएं छापी गयी। इनमें से एक मैं यहां प्रस्तुत कर रहा हुं। कविता क संदर्भ है - "रिटायरमेन्ट के बाद…"

चला गया वक़्त

अब रुकूं, मुझसे मिलकर
चला गया मेरा वक़्त

अब वक़्त है कि छोड़ दूं
ये रास्ता दूसरों के लिये

कितनी अजीब है
कि चल सकने क वक़्त चला गया
रास्ता बनाने में

और जब चलने का वक़्त आया
चला नहीं जाता
अपने ही बनाये रास्तों पर।

-- कुंवर नारायण


The poem is also very aptly applicable to Madhur, who incidentally created this blog.
बोले तो सरजी -
चला गया वक़्त BLOG बनाने में.....

Saturday, July 08, 2006

क्योंकि सपना है अभी भी

धरमवीर भारती को हिन्दी साहित्य के युवा रचयिताओं में गिना जाता है। उनकी शैली अत्यन्त नवीन एवं जोशीली है। उनकी रचनाओं में से "गुनाहों का देवता", "सूरज का सातवां घोड़ा" इत्यादी प्रमुख हैं।
यहां पर मैं भारती की एक काव्य रचना पर रोशनी डालने का प्रयास करूंगा। यदी आपने "लक्ष्य" देखी है तो आपको इस कविता की सुन्दरता बहुत आसानी से उजागर होगी। लक्ष्य में ऋतिक रोशन ने करण शेरगिल का किरदार निभाया है, जिनकी प्रियसी रोमीला दत्ता का किरदार प्रिती ज़िँटा ने निभाया है। करण को रोमी अपनी ज़िन्दगी से इसलिये निकाल फैंकती है क्योंकी करण के जीवन में कोई लक्ष्य नही है। उसके बाद करण अपने लक्ष्य को ढूँढकर सिर्फ उसीकी दिशा में बढ़ जाता है। भारती जी की इस काव्या रचना "क्योंकी" का सन्दर्भ लक्ष्य में वहां मिलता है जहां करण युद्ध के मैदान में घायल अवस्था में भी लड़ता जा रहा है।

क्योंकि

...... क्योंकि सपना है अभी भी -
इसलिए तलवार टूटे, अश्व घायल
कोहरे डूबी दिशायें,
कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धुंध-धूमिल,
किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी
...... क्योंकि है सपना अभी भी!

तोड़ कर अपने चतुर्दिक का छलावा
जबकि घर छोड़ा, गली छोड़ी, नगर छोड़ा,
कुछ नहीं था पास बस इसके अलावा,
विदा बेला, यही सपना भाल पर तुमने तिलक की तरह आँका था
(एक युग के बाद अब तुमको कहां याद होगा)
किन्तु मुझको तो इसी के लिए जीना और लड़ना
है धधकती आग में तपना अभी भी
...... क्योंकि सपना है अभी भी!

तुम नहीं हो, मैं अकेला हूँ मगर
यह तुम्ही हो जो
टूटती तलवार की झंकार में
या भीड़ की जयकार में
या मौत के सुनसान हाहाकार में
फिर गूंज जाती हो
और मुझको
ढाल छूटे, कवच टूटे हुए मुझको
फिर याद आता है कि
सब कुछ खो गया है - दिशाएँ, पहचान, कुंडल-कवच
लेकिन शेष हूँ मैं, युद्धरत् मैं, तुम्हारा मैं
तुम्हारा अपना अभी भी

इसलिए, तलवार टूटी, अश्व घायल,
कोहरे डूबी दिशाएँ,
कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धूंध-धुमिल
किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी
...... क्योंकि सपना है अभी भी!

- धर्मवीर भारती

संदर्भ-

...... क्योंकि सपना है अभी भी -
इसलिए तलवार टूटे, अश्व घायल
कोहरे डूबी दिशायें,
कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धुंध-धूमिल,
किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी
...... क्योंकि है सपना अभी भी!
करण युद्ध के मैदान में घायल पड़ा है और अपने लक्ष्य-प्राप्ती के सपने को जीवित रखने का प्रयास कर रहा है।



तोड़ कर अपने चतुर्दिक का छलावा
जबकि घर छोड़ा, गली छोड़ी, नगर छोड़ा,
कुछ नहीं था पास बस इसके अलावा,
ऐशो-आराम की ज़िन्दगी छोड़ कर जब करण ने अपने चारों ओर के मायाजाल को तोड़ा तो उसके पास इस सपने के अतिरिक्त कुछ नही था।

विदा बेला, यही सपना भाल पर तुमने तिलक की तरह आँका था
(एक युग के बाद अब तुमको कहां याद होगा)
रोमी ने उसे अपने जीवन से बाहर फेंक उसके अंदर जो आग लगा दी थी, आज वह खुद उस आग को भूल गयी है।

किन्तु मुझको तो इसी के लिए जीना और लड़ना
है धधकती आग में तपना अभी भी
...... क्योंकि सपना है अभी भी!
लेकिन करण तो आज तक उस आग में तप रहा है। उसके जीवन में उसके सपने को गर्म रखने वाली इस आग के अतिरिक्त कुछ नही है।


तुम नहीं हो, मैं अकेला हूँ मगर
यह तुम्ही हो जो
टूटती तलवार की झंकार में
या भीड़ की जयकार में
या मौत के सुनसान हाहाकार में
फिर गूंज जाती हो
आज रोमी की गैरहाज़री में करण अकेला और घायल है, परंतु यह रोमी की आवाज़ ही है जो उसके साहस को जीवित रखती है।

और मुझको
ढाल छूटे, कवच टूटे हुए मुझको
फिर याद आता है कि
सब कुछ खो गया है - दिशाएँ, पहचान, कुंडल-कवच
लेकिन शेष हूँ मैं, युद्धरत् मैं, तुम्हारा मैं
तुम्हारा अपना अभी भी
यही आवाज़ है जो इस मृत्यु-निकट पल में उसे याद दिलाती है कि उसकी यह अवस्था उसकी हार नहीं है। अपितु, अभी भी वह रोमी का अपना है, क्योंकी उसने अपने लक्ष्य, अपनी आग को जीवित रखा है।


इसलिए, तलवार टूटी, अश्व घायल,
कोहरे डूबी दिशाएँ,
कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धूंध-धुमिल
किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी
...... क्योंकि सपना है अभी भी!
यह पंक्तियाँ तो अपनी कहानी स्वयं ही कहती है।